December 2, 2024
पुण्य तिथि के अवसर पर ‘सादर श्रद्धांजलि’
Sachin Dev Burman Death Anniversary: भारत ऋषि-मुनियों-तपस्वियों और साधकों का देश है. यहां जीवन का निवास तर्क और विश्लेषण द्वारा नहीं हुआ है अपितु यह देश काव्य और संगीत की हवा में सांस लेकर जिंदा रहा है. इस ओद्ययोगिक सभ्यता के चरम विकास में भी हम अपनी पुरानी परंपरा को छोड़ नहीं पाये हैं-काव्य और संगीत अब भी हमारे जीवन के आधार हैं.
उपर्युक्त पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए यह स्वीकार करने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि भारतीय फिल्मों में काव्य और संगीत की इस हार्दिक परंपरा को कायम रखने में जिनका महत्वपूर्ण योगदान है, उनमें फिल्म-संगीत अमर साधक सचिन देव बर्मन की चर्चा अत्यावश्यक है. सही माने में बर्मन दा के कठोर परिश्रम और गहन साधना का ही यह फल हैं कि आज भारतीय फिल्म-संगीत की लोकप्रियता न केवल इस देश में बल्कि सात समुद्र पार भी लोग इस संगीत के प्रति आशक्ति महसूस करते हैं.
विशेषकर जहां केवल सचिन दा (Sachin Dev Burman Death Anniversary) के संगीत के बारे में जब कोई बात कही-सुनी जायेगी तो वैसी अवस्था में सिर्फ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनके संगीत को सुनकर, उनके द्वारा स्वरबद्ध गीतों को सुनकर आदमी इस स्थिति में नहीं होता जिससे वह बहस कर सके बल्कि उनके संगीत व्यक्ति को दूसरी दुनिया में ले जाने का उपक्रम करते हैं, जहां न कोई दुःख है, न कोई ईष्र्या है और न यह तुच्छ संसार है इस दृष्टि से भारतीय फिल्म-संगीत की दुनिया में शायद ही किसी संगीतकार का नाम लिया जा सकता है, जिसकी रचनाओं का आनंद काव्य और संगीत दोनों का आनंद है और जिसमें आनंद की तुलना ब्रह्यानंद से की जा सके. किंतु साधना की इस उपलब्धि के पीछे सचिन दा के जीवन की निजी पृष्ठभूमि को समझना है क्योंकि इसके बिना बातें अधूरी ही रहेगी.
यह सर्वविदित है कि बंग-प्रदेश भावुक कवियों, कलाकारों और संगीतकारों की उर्वर भूमि है. इसी भूमि पर रवि ठाकुर जैसे देवी गुण सम्पन्न महापुरूष पैदा हुए. इसी भूमि पर शरतचंद्र जैसे कथाकार पैदा हुए और इसी भूमि पर काजी नजरूल इस्लाम पैदा हुए. सचिन देव बर्मन की जन्मभूमि भी यही बंग प्रदेश हैं. इस मिट्टी की तासीर ही ऐसी है कि यहां औसत आदमी की कला-चेतना से सम्पन्न होता है और जिसमें इस चेतना के बीज मौजूद होते हैं वह एक लंबी छंलाग लगाता है और उस की प्रसिद्धी दिग-दिगन्त में व्याप्त हो जाती है. चारों तरफ फैले हरे-भरे खेत, छोटी-छोटी नदियां और छोटे-छोटे पोखरे-यह सब एक ऐसा है जिसका असर मन पर होना स्वाभाविक है. दूसरी बात है बंग-प्रदेश से लोक-कला की दृष्टि से सम्पन्न होना. भटियाली और बाउल गीतों की तानें और यात्रा नाटकों की यहां सुदृढ़ परम्परा मिलती है.
1 अक्तूबर 1906 को इन्हीं परम्पराओं के परिवेश में सचिन देव बर्मन (Sachin Dev Burman Death Anniversary) का जन्म त्रिपुरा के राजघराने में हुआ. पिता नवद्वीप चंद्र देव बर्मन बहादुर सितार के अच्छे जानकार थे. इस तरह कह सकते हैं कि इनका जन्म सितार की धुनों पर हुआ. संगीत के बड़े से बड़े समारोह, राजदरबार में आयोजित होते और इन समारोहों में सचिन देव बर्मन बड़ी तन्मयता से हिस्सा लेते.
शुद्ध रूप से कला-साधना की राह बड़ी जटिल हुआ करती है. इस राह पर चलना जीते जी मौत को दावत देने के समान है. सचिन देव बर्मन अपनी शिक्षा सम्पन्न करने कलकत्ते आये. लेकिन किताबों से ज्यादा मन सितार के तारों में खो जाता. संगीत की सुरीली गंगा में एक बार डूब जाने के बाद बाहर आने की तबियत ही नहीं होती. कलकत्ता में तत्कालीन भारतीय संगीत के सुप्रसिद्ध अचार्यो की संगत का असर यह हुआ कि सचिन देव ने संगीत को ही जीवन समर्पित कर देने का निर्णय लिया जबकि पिता इस पक्ष में थे कि वे विदेश जायें और लौटकर राजकाज में हिस्सा लें. किंतु पिता की सारी इच्छा धरी रह गयी और संगीत की दुनिया में उन्होंने पूर्णरूप से पांव रखा. बंगला लोक गीत के गायक के रूप में सचिन देव को अच्छी स्वीकृति मिली तथा प्रायः प्रत्येंक बड़े संगीत समारोह तथा रेडियो कार्यक्रमों के माध्यम से पूरे देश के पैमाने पर उन्हें हर जगह सम्मानित किया गया. कलकत्ता के ही मशहूर फिल्म-कंपनी न्यू थियेटर के श्री बी. एन. सरकार सचिन देव बर्मन की इस प्रतिभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे और वे न्यू थियेटर की फिल्मों के लिए सचिन देव बर्मन के संगीत को इस्तेेमाल करना चाहते थे.
किंतु संचालक व्दय राय बहादुर चुन्नीलाल और शशिधर मुकर्जी ने सचिन देव को अपनी फिल्म ‘शिकारी’ में संगीतकार के रूप में अनुबंधित किया. यह 47 की बात है लेकिन इससे पहले भी 37 में सचिन देव को ‘राजगी’ नामक एक बंगला फिल्म मैं संगीत निर्देशक का अवसर मिल चुका था. यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इन दोनों ही फिल्मों में सचित देव बर्मन संगीतकार के रूप में असफल रहे. उन्होंने फिल्म-संगीत के लिए शास्त्रीय शैली का प्रयोग किया था लेकिन सामान्य जनता इस शास्त्रीयता को पकड़ पाने असमर्थ रही. सचिन देव बर्मन ने इस बात को समझने के बाद यह एहसास किया जिस संगीत को सामान्य-जन के बीच लोकप्रियता न प्राप्त हो वह कभी शाश्वत नहीं हो सकती. बीच में एक फिल्म और आयी-‘आठ दिन’ किंतु ‘दो भाई’ के गीतों ने तो तहलका मचा दिया ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’ गीतादत्त की आवाज में यह गीत अपनी ताजगी में आज भी बिल्कुल अछूता प्रभाव उत्पन्न करता है !
इसी काल में सचिन दा नवकेतन और गुरूदत्त फिल्म्स से जुड़े. इतिहास इस बात की गवाही हमेशा देगा कि इन दोनों ही संस्थाओं की फिल्मों का संगीत पक्ष अपनी मधुरता में नये रिकाॅर्ड स्थापित करता है. इसके साथ ही उनकी संगीत रचना की प्रक्रिया पर गौर करने पर जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य मिलते हैं, वह है कि उन्होंने अपने संगीत की धारा को कभी एकरस नहीं होने दिया. समय और अपनी उम्र के कारण जहां कई संगीतकार पीछे छूटे, वहीं अपने जीवन की आखरी सांस तक उन्होंने अपने संगीत से लोगों को बांधे रखा. फिल्म-संगीत के क्षेत्र में उन्होंने इतने विविध प्रयोग किये जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती. हर प्रयोग अपने आप में अनूठा और बेजोड़ था !
सचिन दा (Sachin Dev Burman Death Anniversary) के फिल्म-संगीत की सबसे बड़ी खूबी यह थी, वे किसी भी फिल्म की आत्मा को स्पर्श करते थे. ‘बाजी’ ‘जाल’ और ‘टैक्सी ड्राइवर’ जैसी फिल्मों में जिन्हें हम 37 जमाने की एक्शन फिल्म कह सकते हैं-सभी सुरीले गीतों की जो मधुर और अविरल धारा प्रवाहित होती हुई महसूस होती है, उसमें भीगने से अपने आपको कौन रोक सका है ? ‘हंस ले गा ले धूम मचा ले’, तदबीर से बिगड़ी तकदीर बना ले’ और ये रात ये चांदनी फिर कहां’ जैसे गीत इसके सबूत हैं.
ठीक इसके विपरीत जब सचिन दा (Sachin Dev Burman Death Anniversary) के जिम्मे ‘प्यासा’ ‘कागज के फूल’ ‘गाइड’ और ‘तेरे मेरे सपने’ जैसी बेहतर तथा भाव-प्रवण फिल्में मिलीं तो इनमें हमें संगीत ही संगीत सुनायी पड़ता है. आश्चर्य तो यह है इन फिल्मों में सचिन दा संगीत श्रोताओं और फिल्म-दर्शकों का न सिर्फ मन बहलाते हैं बल्कि वे कहीं दिल की गहराई में उतरकर एक टीस पैदा करते हैं. इन गीतों को संगीत के अमर सुर प्राप्त हुए हैं और इसीलिए ये गीत कभी पुराने नहीं हो सकते हैं. ‘जाने वो कैसे लोग थे जिनको प्यार से प्यार मिला’ ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम, हम रहे न तुम रहे न तुम’ ‘कांटो से खींच के ये आंचल’ जैसे राधा ने माला जपी श्याम की’ जैये गीतों के बारे में कुछ कहने-सुनने से ज्यादा बेहतर है कि हम इन गीतों को बार-बार सुनें तभी हम सचिन दा की संगीत रचना का रहस्य समझ सकते हैं.
जब हम इन फिल्मों के संगीत की श्रेष्ठता पर विचार करेंगे तो यह साफ पता चलेगा कि इनमें से कुछेक फिल्मों को बाॅक्स-आॅफिस पर पर्याप्त सफलता नहीं मिली है. इसका मतलब यह हुआ कि सचिन दा ने कभी फिल्म के व्यावसायिक पहलू को अधिक महत्व नहीं दिया. जिसके कारण उन्हें शायद निर्माताओं की अवहेलना भी करनी पड़ी होगी. आज फिल्म-संगीत की चर्चा चलने पर एक बड़ी अजीब बात सुनने को मिलती है कि आज का फिल्म-संगीत जन-रूचि को ध्यान में रखकर ही तैयार किया जा रहा है. इस जन-रूचि के बहाने निहायत बोगस और घटिया चीज बाहरी बाजारों से चुराकर धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं जिन्हें जनरूचि का ख्याल है, वे सविन दा से प्रेरणा अवश्य ग्रहण कर सकते हैं कि उन्होंने जनरूचि के बहाने कभी अपने संगीत को बाजारू और चोरी का माल नहीं बनने दिया.
सचिन दा (Sachin Dev Burman Death Anniversary) संगीत रचना के क्षणों में गीतों में काव्य-तत्व की तलाश में हमेशा लगे रहते हैं. उनके गीतों में फूलों सिंदूरी शाम नदी की कलकल ध्वनि एवं पक्षियों के चहचहाट के जो आकर्षक चित्र मिलते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है. वह जानते थे कि जिन गीतों में भाव चित्र नहीं होंगे, उन्हें केवल धुनों पर जीवित नहीं रखा जा सकता. आज के फिल्म-संगीत में यह अभाव अक्सर हमें सचिन दा के गीतों की याद ताजा कर देते हैं.
‘आराधना’ से सचिन दा के गीतों का एक और नया आयाम उद्घाटित होता है. इस फिल्म में वे एकदम युवा संगीत लेकर प्रस्तुत होते हैं. इसे ही आधुनिक संगीत का दर्जा दिया जाता है. जहां फिल्म में पारंपरिक और लोकसंगीत को चरम स्थिति पर पहुंचाकर उन्होंने एक उदाहरण पेश किया था, वहीं उन्होंने आधुनिक संगीत का दर्जा दिया गया है. जहां फिल्म में पारंपरिक और लोक संगीत को चरम स्थिति पर पहुंचाकर उन्होंने एक उदाहरण पेश किया था. वहीं उन्होंने आधुनिक संगीत के क्षेत्र में भी सर्वथा अभिनय प्रयोग किये थे फिल्म आराधना, रूप तेरा मस्ताना’ जैसा गीत इस बात की सत्यता सिद्ध करने के लिए उपयुक्त हैं.
जहां दूसरे अन्य संगीतकारों ने अपनी संगीत यात्रा दो-तीन गायकों के साथ ही संपन्न की. वहीं सचिन दा अपनी संभावनाओं में असीमित दिखायी पड़ते हैं. हेमंत कुमार, गीता दत्त शमशाद बेगम, मुकेश रफी, आशा, मन्ना डे और लता के अलावे शायद ही कोई गायक बचा होगा जिसके स्वरों का इस्तेमाल सचिन दा ने अपने संगीत के लिए न किया हो. युवा कलाकार राजेश खन्ना के लिए किशोर कुमार की आवाज के साथ तालमेल बैठाने का काम सचिन दा ने ही किया है. यह बात आज भी किशोर कुमार स्वीकार करेंगे कि उन्हें लोकप्रियता की चोटी पर पहुंचाने में अकेले सिर्फ सचिन दा का ही योगदान है.
1946 से 74 तक सचिन दा ने लगभग 90 फिल्मों में संगीत दिया हैं. संगीतकार के तौर पर उनकी उपलब्धियों के अतिरिक्त भी सधे गायक के रूप में भी उनकी प्रतिष्ठा कायम हुई थी. उनके गाये गीतों का अन्दाज बिल्कुल ही अलग है. उन गीतों के स्वर एक गहरी व्यवस्था उत्पन्न करते हैं और सहज ही आंखों का कोना भीग आता है. उनके गाये कुछ प्रमुख गीतों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-
सुन मेरे बंधु रे सुजाता 2. ओ मेरे मांझी बंदिनी 3. वहां कौन है तेरा गाइड 4. काहे को रोये आराधना 5. मेरी दुनिया है मां तेरे आंचल में तलाश 6. और प्रेम के पुजारी प्रेम पुजारी.
अपने सहयोगी और समकालीन संगीतकारों के प्रति सचिन दा हमेशा प्रशंसा भाव रखते थे. आज खिंचतान के दौर में सचिन दा की स्मृति से ही मन को करार मिल सकता है वरना संगीत जैसी विद्या में ईष्र्या और द्वेश के वातावरण को एहसास करके तो बेहद तकलीफ होती है.
आज सचिन दा हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने भारतीय फिल्म संगीत को जो दिया है, वह एक आलोचक पथ है जिस पर चलकर शताब्दियों तक फिल्म-संगीत नये क्षितिज प्राप्त कर सकता है. उनके बारे में जितना भी कहा जाये, जितना भी लिखा जाये, वह बहुत कम होगा. फिल्म संगीत के इस अमर साधक ने हमें जितना दिया है उसके बदले हम कोई प्रतिदान नहीं दे सकते. उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम उनके संगीत के आदर्शो पर चलकर संगीत की एक सुदृढ़ परंपरा कायम रखें और संगीत के द्वारा रूचि को विकसित करें
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