November 14, 2024
Manoj Kumar Birthday Special: मनोज कुमार ने हमें श्रीसाऊंड स्टूडियो में ‘दस नम्बरी’ के सैट पर दोपहर को एक बजे बुलाया था. हमें वहां पहुंचते-पहुंचते कुछ देरी हो गयी थी. हमें आशंका हुई कि वे लंच के लिए घर चले गये होंगे. पर जब हम ‘मायापुरी’ के दिल्ली स्थित संपादक जे. एन. कुमार, बंबई स्थित प्रतिनिधि जैड़. ए. जौहर और मैं सैट पर पहुंचे तो शाॅट चल रहा था.
सैट पर पहुंचते ही कुछ स्पन्दन-सा महसूस हुआ.
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं और बंबई जैसे शहर के कोलाहल को छोड़कर हम एक छोटे से गांव के धोबीघाट पर कैसे पहुंच गये हैं? चारों ओर मिट्टी ही मिट्टी थी. सामने एक टीला था. टीले के नीचे, पेड़ों की छाया में पानी का एक कुंड था, जिसके पास कुछ गीले कपड़ों का ढेर पड़ा था. कोने में रस्सियों पर रंग-बिरंगे कपड़े सूख रहे थे. और वहीं, उसी धोबीघाट पर ही दो धोबी प्राण और मनोज कुमार नजर आये. दोनों इस समय मोटे-कपड़े की धोती, कत्थई रंग के झब्बे और नाकेदार जूते पहने पूरे धोबी भैया लग रहे थे.
एक गीत के फिल्माये जाने की तैयारी हो रही थी. मुझे याद आया कुछ ही दिनों पहले तो प्राण साहब के पैरों में एक खतरनाक दृश्य फिल्माते समय चोट आ गयी थी और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था और जो आज भी बैंत के सहारे, चलते हैं. मनोज कुमार भी कुछ ही दिनों पहले फिसल गये थे और पैर में गहरी चोट लग जाने के कारण उन्हें काफी दिनों तक बिस्तर पर रहना पड़ा था. पर आज दोनों अपनी अपनी चोटों और दर्द को भूलकर बेझिझक गीत गाते हुए नाचने को तैयार थे. इसे कहते हैं-डिवोशन..
शाॅट लेने के पहले स्वयं मनोज कुमार ने फिल्म के निर्देशक मदन मौला के साथ बैठकर शाॅट डिवीजन किये और कैमरा में आंख लगा कर सब कुछ देखा-भाला. खुद डांस का रिहर्सल किया. कुछ लोग उनकी ऐसी हरकतों पर प्रायः यह आरोप लगाते हैं कि फिल्मों में कार्य करते-करते खुद निर्देशक बन जाते हैं और हर शाॅट में हस्तक्षेप करते हैं. मनोज कुमार के आलोचक यदि इस वक्त शाॅट लेने के पहले ट्राली पर कैमरा की आंख में आंख डाले हुए उन्हें देखते तो शायद उन्हें फिर कुछ गरम मसाला मिल जाता. पर मनोज कुमार है
जो इन बातों की चिंता नहीं करते उनकी अपनी मान्यता है कि ‘हर कलाकार फिल्म में एक जिंदगी जीता है इसलिए उसका एक-एक शाॅट उसके जीवन के क्षणों की तरह महत्वपूर्ण होता है. एक शाॅट बिगड़ा कि पूरी जिंदगी-पूरी फिल्म बिगड़ सकती है.’ जो व्यक्ति अपने फिल्म कैरियर के लिए इतना सावधान हो, वह फिल्म की शूटिंग के वक्त महज दर्शक नहीं रह सकता. कुछ ही दिनों पहले ‘सन्यासी’ से सैट पर.
एक संक्षिप्त मुलाकात में इसी संदर्भ में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था, ‘‘मैं बाहर की बहुत कम फिल्में लेता हूं और केवल उनकी फिल्में लेता हूं और केवल उनकी फिल्में लेता हूं जिनके साथ मेरा भावनात्मक संबंध है. मैं इस रिलेशन को महत्व देता हूं क्योंकि उसी स्थिति में आर्टिस्ट फिल्म के निर्माण में सक्रिय सहयोग दे सकता है. ध्यान रखें-मैं सहयोग की बात कर रहा हूं. हस्तक्षेप की नहीं. यह सहयोग बहुत जरूरी है केवल कलाकारों का ही नहीं, यूनिट में काम करने वाले हर व्यक्ति का….!’’
मेरे इस प्रश्न पर उन्होंने हल्का-सा मुस्कराकर कहा-‘‘नहीं, ऐसी बात तो नहीं है, पर हां, फिल्म में कार्य करने के पहले उनके साथ सम्बंध तो बनाने ही पड़ेंगे. आपको तो पता ही होगा कि किसी भी फिल्म में कार्य करने की मेरी पहली शर्त ही होती है-
जब तक स्क्रिप्ट तैयार नहीं हो जाती, एक-एक सीन और शाॅट के साथ मैं सैट पर ही नहीं आता. अपनी फिल्म के बारे में भी यही बात है. स्क्रिप्ट तैयार होगी, तभी फिल्म सैट पर जायेगी. हां, तो बात चल रही थी नये निर्माता-निर्देशकों के साथ कार्य करने की. उनके साथ भी स्क्रिप्ट तैयार होते-होते मैं समझता हूं रिलेशनशिप तो बन ही जायेगी. यह बहुत जरूरी है. ऐसा नहीं हो सकता कि शूटिंग की डेट्स दी, आया, मेकअप किया, कैमरे के सामने खड़ा हुआ, चंद डाॅयलाॅग बोले, अपना रोल किया और चल दिया. कम से कम मेरे साथ तो ऐसा हो ही नहीं सकता. इसी कारण मैं कम फिल्मों में काम करता हूं क्योंकि फिल्मों को अपनी जिंदगी का ही हिस्सा मानता हूं न कि कैरियर का शायद यही कारण है कि कुछ लोग मुझे फिल्मों के मामले में टफ व्यक्ति समझते है.’’
उस दिन बीच में कुछ लोगों के आ जाने से हमारी बातचीत का सिलसिला भी टूट गया था. मैंने सोचा-आज मौका है. वह अधूरा इन्टरव्यू आज पूरा हो जायेगा. उधर शाॅट हो रहा था और इधर मेरे मन में कई तरह के सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे. इतने में सीटी बजी-‘कट’ की आवाज हुई और पता चला कि लंच ब्रेक हो गया है. मनोज साहब ने इशारा किया और हम उनके साथ-साथ मेकअप रूम में पहुंच गये.
मनोज कुमार ने सोफे पर बैठते ही कहा, ‘‘पहले आप लंच लीजिये….’’ उनका इतना कहना था कि उनके नौकर ने हमें प्लेटें थमा दीं और उनके घर से आये टिफन को खोलकर सामने मेज पर रख दिया. बिल्कुल हल्का भोजन था-मूंग की दाल, आलू मटर, भिंडी, चावल, मुलायम-मुलायम चपाती.
हम सब लोग मनोज कुमार के साथ लंच करने लगे पर कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बातों का सिलसिला कैसे शुरू हो ? अचानक छोटे बजट की नयी फिल्मों की, आर्ट फिल्मों की और समान्तर फिल्मों की चर्चा चल पड़ी. उन्होंने बड़ी कडुआहट के साथ कहा-‘‘कुछ लोगों को मेनिया हो गया है छोटे बजट की फिल्म को आर्ट फिल्म कहने का गोया बड़े बजट की फिल्म में कोई आर्ट होता ही नहीं. यह सब लोगों को गुमराह करने वाली बात है. हम लोग जो फिल्में बनाते हैं वे भी आर्टिस्टिक होती हैं, उन्हें केवल कमर्शियल फिल्में क्यों कहा जाता है ? यह बात आज तक मेरी समझ में नहीं आयी. बल्कि सच तो यह है कि हमारी फिल्में ही अधिक कम्युनिकेटिव होती हैं. मैं समझता हूं कि उन्हें फिल्मों के बारे में कुछ पता ही है या जो किसी खास उद्देश्य से कुछ ऐसा भ्रम फैल रहे हैं. फिल्म स्वयं एक आर्ट है और आर्ट हमेशा कम्युनिकेटिव और रिटमयुलेटिव होता है.
इस तरह कला के नाम पर फिल्मवालों को जनता की नजरों से गिराने का प्रयास हो रहा है वह घातक है. सच पूछा जाय तो फिल्में दो ही तरह की होती हैं. एक बड़े कलाकारों को लेकर बनायी गयी छोटे बजट की फिल्म फिल्म फिल्म है. यह कहना कि बड़े बजट की फिल्में कमर्शियल फिल्म हैं और उनमें आर्ट नहीं है, और छोटे बजट की फिल्म नाॅन कमर्शियल फिल्म हैं और उसमें आर्ट है, एक बहुत बड़ा धोखा है, लोगों को गुमराह करने का ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थी की पूर्ति के लिए कुछ ऐसा आन्दोलन-सा चला दिया है. जब मैं उनकी बातें सुनता हूं, पढ़ता हूं तो आश्चर्य होता है. और आश्चर्य मुझे इस बात का भी है कि उनकी वे बातें स्वीकार कैसे की जा रही हैं ?’’
मनोज कुमार ने कहा-‘‘मैंने नहीं देखी पर सुना है अच्छी बनी हैं. मैं यह नहीं कहता कि छोटे बजट की फिल्में अच्छी या आर्टिस्टिक नहीं होती पर केवल यह कतना कि वे ही अच्छी और आर्टिस्टिक होती हैं, बड़ी फिल्में नहीं, एकदम गलत है. छोटे बजट की तथाकथित कुछ फिल्में तो ऐसी हैं जो फिल्म फायनेंस काॅरपोरेशन की मदद से बनी हैं पर एक दिन भी नहीं चलीं. आखिर ऐसी फिल्में बनाने से क्या लाभ जिन्हें जनता न देख सके ? मैं समझता हूं कि फिल्में जनता के लिए है और जनता के लिए रहेंगी.’’
‘‘पर हो सकता है दर्शकों का स्तर ही घटिया हो ?’’ मैंने जानबूझ कर सवाल किया ताकि उनसे कुछ और विवादास्पद सामग्री मिल सके. आज वे काफी उत्तेजित थे. उन्होंने कहा-‘‘जनता बेवकूफ नहीं है. काफी समझदार है. मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांव का अनपढ़ व्यक्ति भी फिल्मों के मामले में बड़ा समझदार हो गया है. वह कभी ऐसी फिल्म पसन्द नहीं करेगा जिसमें कुछ अर्थ ही न हो. आजकल के आमदर्शक बड़े-बड़े समीक्षकों के कान काटते हैं. मैं जानता हूं हमारी फिल्मों के अनेक तथाकथित नामवाले समीक्षक स्टोरी और स्क्रीनप्ले तक का भेद नहीं जानते और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो रोल और परफारमेंस को एक ही समझते हैं. इतना ही नहीं कुछ समीक्षक तो इतने सब्जेक्टिव हैं कि फिल्म की आलोचना करते-करते वे व्यक्तिगत स्तर पर उतर आते हैं. मैं आपको उदाहरण देता हूं– ‘रोटी कपड़ा और मकान’ की समीक्षा करते हुए एक समीक्षक ने लिखा कि ‘रोटी कपड़ा और मकान’ बनाने वाले मनोज कुमार के यूनिट के लोगों के पास भी ‘रोटी कपड़ा और मकान’ नहीं है. आप ही बताइये मेरी फिल्म की समीक्षा के साथ उसका क्या संबंध है ! वे समीक्षक मेरी फिल्म की आलोचना कर रहे हैं या मेरी ? मुझ पर कीचड़ उछालें-भले ही-पर अलग से लेख लिख सकते हैं. फिल्म के साथ उसका संबंध जोड़कर वे समीक्षक के रूप में अपना स्तर भी घटिया कर रहे हैं. मैं तो समझता हूं चाहे समीक्षक फिल्म की आलोचना को भुलाकर मुझ पर कितना ही कीचड़ उछालें-पर यदि मुझे लाखों दर्शकों का प्यार मिला है जो मेरी सबसे बड़ी सफलता है.
मैं कुछ लोगों के लिए फिल्में नहीं बनाता बल्कि देश के लाखों लोगों के लिए फिल्में बनाता हूं और वे जब उन्हें पसन्द कर लेते हैं तो मैं जान लेता हूं, मैंने जो कुछ किया है वह ठीक है, वर्ना मेरी फिल्म नहीं चल पाती. लाखों दर्शक बेवकूफ नहीं हैं और कोई भी निर्माता-निर्देशक लाखों दर्शकों को देश के इस कोने से सुदूर उस कोने तक फैले हुए दर्शकों को एक साथ बेवकूफ नहीं बना सकता.’’
‘‘हां, कुछ फिल्मों में सोशल वेल्युज को ठीक रूप से पेश नहीं किया जाता. केवल सैक्स और वायलेंस से फिल्में नहीं चलतीं, यदि ऐसा होता तो आज 75-80 प्रतिशत फिल्में फ्लाप नहीं होती.’’
मनोज साहब के इस उत्तर के आगे मुझे चुप हो जाना पड़ा. पर इसी बीच मेरे पास बैठे जौहर साहब ने एक बड़ा दिलचस्प सवाल किया-‘‘आजकल नायक-प्रधान फिल्में ही क्यों बन रही हैं? अन्तर्राष्ट्रीय
मनोज साहब (Manoj Kumar Birthday Special)ने मुस्करा कर कहा-‘‘यह बहुत अच्छा सवाल है. वैसे अनेक सामाजिक फिल्मों में हीरोइनों को महत्व दिया गया है. मेरी फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ में महिलाओं के उत्कर्ष की कई बातें हैं. पर हां, अब मीना कुमारी और नरगिस का युग नहीं रहा. पहले उन्हें मद्देेनजर रखकर भी कहानियां लिखी जाती थीं. इस दिशा में अवश्य कुछ होना चाहिए.’’ (Manoj Kumar Birthday Special)
जब तक लंच समाप्त नहीं हुआ मनोज सहाब भावावेश में फिल्मों के सोशल वेल्युज के बारे में बोलते रहे. वे आज कुछ गहरे ‘मूड’ में थे. उन्होंन जो कुछ कहा उसका आशय यही था कि फिल्ममेकर के रूप में वे सोशल वेल्युज को कभी नहीं भूल सकते क्योंकि वे अपने लिए नहीं, अपनी जनता के लिए फिल्म बनाते हैं. और जनता के प्रति फिल्ममेकर के रूप में उनका भी अपना कुछ दायित्व है. ’
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